आज बहुत दिन बाद कुछ ऐसा देखा की बरबस ही हँसी आ ही गई
अपने शहर की परी रोड (अरे किसी ज़माने में कही जाती थी जब हम कॉलेज में थे) पर महिला पुलिस कुछ लोगो को कान पकड़ कर उठक बैठक लगवा रही थी
शोहदे थे बच्चियो को परेशां करने वाले
थोड़ा ठहरा हंसा लेकिन फिर सिहर भी गया की क्या इस उठक बैठक से सही में सुधर जायेंगे ये लोग
पिछले दौर की बात होती तो शायद मन विचलित न होता पर
आज के एमएम एस के दौर में न जाने क्यूँ मन घबरा ही जाता है
न जाने क्या सोच रहा है आज का यूथ जो महज दस बारह की उमर में जवान हो जाता है और मालती मीडिया एनाबल्ड मोबाइल की मांग करता है
आज शायद वो दौर नही जब एक बार कान पकड़ कर उठक बैठक लगाने वाला युवा जरुरी नही की ताउम्र महिला महाविद्यालयों के आस पास न दिखाई दे
आज के युवा का आदर्श थोड़ा सा बदला हुआ हे जो पीढी अब
शायद एक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने गाना गाने वाले देवानंद को नही
जरा सा दिल में दे जगह तू गाने वाले इमरान हाश्मी और डर के किरण का राग आलापने वाले शाहरुख़ को अपना आदर्श मानती है जो कुछ अलग ही सोचते है ....
इन शोहदों को कैसे सुधारे ये विचार का प्रश्न है
उठक बैठक भी कभी कभी लगवाई जाती है और लड़किया है की इन्हे जूते भी नही मारती